
2005 में यूपीए सरकार आई और उसने 2010 तक एक नई योजना के तहत 1.23 लाख गांवों में बिजली पहुंचाने का लक्ष्य रखा था. यूपीए के नौ साल के कार्यकाल में 1.10 गांवों में बिजली पहुंची यानी हर साल औसतन 12 हज़ार गांव बिजली से रोशन हुए. इस सरकार में 2005 से 2012 तक यानी पहले सात साल औसतन 15 हज़ार गांवों में बिजली पहुंचाई गई. लेकिन उसके बाद दो सालों में सिर्फ दो हज़ार गांवों में बिजली पहुंचाई गई.
इस सरकार ने बीपीएल परिवारों को बिजली देने का लक्ष्य रखा था और वह भी बिल्कुल मुफ्त. मनमोहन सरकार ने 2.30 करोड़ परिवारों से 89 फीसदी परिवरों में बिजली का बल्ब जलाने का काम किया. लेकिन जो लोग बीपीएल से ऊपर थे वे थे 1.82 करोड़ परिवारों में से सिर्फ 15 लाख परिवारों को बिजली दी गई. यानी लक्ष्य का सिर्फ 8 फिसदी. दोनों आंकड़े मिलाकर केवल 54 फीसदी परिवारों को यूपीए में बिजली मिल सकी थी.
अगर दोनों सरकारों यानी यूपीए और एनडीए का बिजली पहुंचाने का स्ट्राइक रेट देखा जाए तो मनमोहन सरकार में हर साल 12 हज़ार गांवों में बिजली पहुंचाई गई जबकि मोदी सरकार में यह आंकड़ा 48 सौ गांव का रहा है. यानी यूपीए से यह सरकार फिसड्डी साबित हुई है. बीपीएल ग्रामीण परिवारों की बात करें तो 23 लाख परिवारों को बिजली दी गई और मोदी सरकार में केवल 17 लाख परिवारों को सालाना बिजली कनेक्शन मुहैया कराए गए.
इसका कारण यह ये कि शुरूआत में जिन गांवों का विद्युतीकरण हुआ वे संसाधनों की पहुंच में थे, फिर दूरदराज के गांवों का विद्युतीकरण किया गया, जिससे बाद में विद्युतीकरण का आंकड़ा गिर गया. अक्टूबर, 2012 में मनमोहन सिंह ने भी कहा था कि 2017 तक सभी के पास हम आसान बिजली मुहैया करा देंगे.
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